कहानी: बीती बातें
पन्द्रह साल पहले मैंने अपने गांव को अलविदा कहा था। शहर की चमक-दमक, काम की व्यस्तता, और सुविधाओं ने मुझे इस कदर जकड़ लिया कि गांव की यादें धुंधली पड़ने लगीं। मां-बाप, भाई-बहन, सभी को मैंने अपने पास शहर में बुला लिया। पुश्तैनी मकान की देखभाल के लिए माता-पिता कभी-कभी गांव चले जाते, पर मैं खुद कभी लौटने की सोच न सका। लेकिन आज, न जाने क्यों, मन में एक अजीब सी बेचैनी उठी। गांव की मिट्टी की सोंधी खुशबू, जोहड़ का ठंडा पानी, और बचपन के दोस्तों की हंसी-मजाक—सब कुछ चलचित्र की तरह आंखों के सामने घूमने लगा।
ऑफिस में बैठा मैं काम में मन नहीं लगा पा रहा था। सुबह के दस बजे थे, और पूरा दिन काटना मुश्किल लग रहा था। साहब के आने का इंतजार था। मैंने सोचा, चार दिन की छुट्टी ले लूंगा, शनिवार-रविवार जोड़कर पांच-छह दिन गांव में बिताऊंगा। वहां की शुद्ध हवा में सांस लूंगा, पुराने दोस्तों से गपशप करूंगा, जोहड़ पर जाऊंगा, और स्कूल की उन गलियों में घूमूंगा जहां हम खटिया बिछाकर पढ़ते थे। मास्टर जी और बहनजी के साथ बिताए वो मस्ती भरे दिन आज भी मन को गुदगुदाते हैं।
मैंने मेज से कागज-कलम निकाली और आकस्मिक अवकाश का पत्र लिखा। साहब ने बिना किसी आपत्ति के हस्ताक्षर कर दिए। मेरी कम छुट्टियां लेने की आदत आखिर काम आ गई। पत्र रजिस्टर में जमा करवाकर मैं काम निपटाने लगा। समय का पता ही नहीं चला, और शाम के पांच बज गए। ऑफिस से निकलते वक्त सहकर्मियों को गांव जाने की बात बताई, तो सबने उत्साह दिखाया।
घर पहुंचते ही मैंने परिवार को गांव चलने की योजना सुनाई। लेकिन बच्चों ने मना कर दिया—वार्षिक परीक्षाएं सिर पर थीं। मां-बाप ने भी टालमटोल की। पत्नी रेणुका ने कहा, “अचानक गांव जाने का क्या प्लान बना लिया? बच्चों की पढ़ाई का ख्याल कौन रखेगा? परीक्षाएं खत्म होने दो, फिर सब साथ जाएंगे।”
मैंने समझाने की कोशिश की, “रेणुका, पन्द्रह साल हो गए। आज सुबह से गांव की यादें मन को मथ रही हैं। बचपन की हर बात—जोहड़, स्कूल, दोस्त—सब कुछ जीवंत हो उठा है। मुझे जाना ही है।”
रेणुका ने चिंता जताई, “अकेले का मन कैसे लगेगा? खाना-पीना कैसे होगा?”
मैंने हंसते हुए कहा, “गांव में खाने की कमी? वहां तो हर घर में इज्जत से खिलाते हैं। और मन? मेरी जन्मभूमि है वो, वहां की हर गली मेरी कहानी कहती है।”
आखिरकार रेणुका मान गई। उसने मेरा बैग तैयार किया, जरूरी सामान रखा, और हिदायत दी, “समय पर खाना खाना, और फोन जरूर करना।” मैंने हंसकर कहा, “गांव में नेटवर्क कहां? फिर भी फोन ले जाऊंगा।” रात का खाना खाकर हम देर तक बातें करते रहे, फिर सो गए।
सुबह पांच बजे मैंने रेणुका को जगाया, “छह बजे की ट्रेन है, जल्दी खाना बना दो।” वह बड़बड़ाती हुई उठी और रसोई में चली गई। मैं नहाकर तैयार हुआ। रेणुका ने खाना पैक किया, चाय दी, और मैं मां-बाप के पांव छूकर, बच्चों को दुलारकर स्टेशन के लिए निकल गया।
ट्रेन में खिड़की वाली सीट मिली। गांव जाने का रोमांच पूरे शरीर में दौड़ रहा था। मैंने बैग से एक पत्रिका निकाली, पर पढ़ते-पढ़ते नींद आ गई। दो घंटे बाद आंख खुली तो ट्रेन अपनी रफ्तार से दौड़ रही थी। मैं गांव की यादों में खो गया—हरिया काका का आम का पेड़, जिस पर हम पत्थर मारते थे; मातु नाई की दुकान; और पारों ताई की भैंसों के साथ जोहड़ में मस्ती। एक बार दीवाली पर मटरु काका की धोती में चकरी घुस गई थी, वो उछल-उछलकर चिल्लाए थे। ये यादें हंसी भी लातीं और मन को गुदगुदातीं।
अचानक एक सहयात्री ने पूछा, “क्या बात है, भाई साहब, इतना हंस क्यों रहे हो?” मैंने कहा, “बस, बचपन की यादें ताजा हो गईं।” उसने मुस्कुराते हुए कहा, “बचपन तो भगवान का अनमोल उपहार है—न चिंता, न भय, बस मस्ती।”
यादों में खोया मैं उस वक्त को भी याद करने लगा जब स्कूल में झुनिया से मुलाकात हुई थी। साइकिल की टक्कर से शुरू हुई हमारी दोस्ती धीरे-धीरे प्यार में बदली। लेकिन एक दिन वह और उसका परिवार गांव छोड़कर चले गए। मैं उसे ढूंढता रहा, पर कोई पता न चला। यह सोचकर आंखें नम हो गईं। सहयात्री ने फिर पूछा, “अब क्या हुआ?” मैंने कहा, “पहला प्यार भूलना मुश्किल होता है।”
अंततः मेरा स्टेशन आ गया। मैंने स्टेशन की मिट्टी को चूमा और बाहर निकला। लेकिन बाहर का नजारा चौंकाने वाला था—शहरों जैसी भीड़, रिक्शे, और आधुनिक कपड़े। रास्ता जो पहले कच्चा था, अब पक्की सड़क बन चुका था। खेतों की जगह कंपनियां खड़ी थीं। मन में उम्मीद थी कि गांव में शायद वही पुराना माहौल मिले।
गांव पहुंचते ही बचपन के दोस्त मिले। राम-राम हुई, पर उनकी आंखों में वह पुरानी गर्मजोशी नहीं थी। मैंने घर की सफाई शुरू की। एक पड़ोसी ने मदद की, और दो-तीन घंटे में घर चमक उठा। शाम को दोस्त आए। मैंने सोचा, पुरानी यादें ताजा होंगी। लेकिन जब खाने की बात आई, तो एक दोस्त ने पास के होटल से खाना लाने की बात की और पैसे मांगे। मैंने पांच सौ रुपये दिए, फिर पीने के लिए और पांच सौ। मन में खटका, लेकिन सोचा, दोस्तों के साथ मस्ती ही तो है।
हमने खाया-पिया, पुरानी बातें कीं। लेकिन गौर करने पर लगा कि गांव अब गांव नहीं रहा। बिजली की चमक, गलियों में रौशनी, और देर रात तक जागने की आदत—सब कुछ शहर जैसा। पड़ोसी रामू काका ने बिजली का तार देने के लिए पचास रुपये रोज का खर्चा बताया। मैंने पैसे दे दिए, पर मन उदास था।
रात को नींद नहीं आई। सोचता रहा, क्या मेरा गांव इतना बदल गया? पैसे की चमक ने रिश्तों को भी फीका कर दिया। सुबह उठकर दोस्तों के साथ खेतों में गया, लेकिन वहां हरियाली की जगह बंजर जमीन थी। जोहड़ की जगह पार्क बन चुका था। स्कूल में मिट्टी का फर्श अब पक्का था, और बच्चे शहरों की तरह जींस-टीशर्ट में थे। आम के पेड़ की जगह शौकीन पौधे लगे थे।
मैंने सिर पर हाथ रख लिया। मेरा गांव अब गांव नहीं रहा। वह सादगी, वह अपनापन, वह हरियाली—सब कुछ आधुनिकता की भेंट चढ़ गया। निराशा के साथ मैंने सोचा, शायद यह बदलाव समय की मांग है, पर मेरे बचपन का गांव तो अब सिर्फ यादों में बचा है।
कहानी का विश्लेषण
डॉ. नवलपाल प्रभाकर दिनकर की "बीती बातें" एक ऐसी रचना है जो न केवल व्यक्तिगत नॉस्टैल्जिया को उकेरती है, बल्कि सामाजिक और पर्यावरणीय बदलावों पर भी गहरी टिप्पणी करती है। कहानी का नायक अपने बचपन को फिर से जीने की चाह में गांव लौटता है, लेकिन उसे वहां आधुनिकता का कड़वा सच मिलता है। यह कहानी शहरीकरण के दुष्प्रभावों—जैसे हरियाली का ह्रास, रिश्तों में व्यावसायिकता, और सामुदायिक भावना की कमी—को उजागर करती है।
लेखक ने सहज और भावपूर्ण शैली में नायक के मनोभावों को चित्रित किया है। गांव की यादों में खोया नायक जब बदलावों का सामना करता है, तो उसकी निराशा पाठक को भीतर तक छूती है। कहानी का अंत, जहां नायक अपने गांव को खोया हुआ पाता है, एक काव्यात्मक दुख को जन्म देता है। यह समकालीन भारत में तेजी से हो रहे शहरीकरण और ग्रामीण संस्कृति के पतन का प्रतीक है।
साहित्यिक महत्व
साहित्य समीक्षकों के अनुसार, "बीती बातें" हिंदी साहित्य में एक महत्वपूर्ण योगदान है। यह उन लोगों की आवाज बनती है जो अपनी जड़ों से जुड़े रहना चाहते हैं, लेकिन समय की मार से अछूते नहीं रह सकते। डॉ. दिनकर की यह रचना हमें सोचने पर मजबूर करती है कि विकास के नाम पर हम अपनी सांस्कृतिक और पर्यावरणीय विरासत को कितना खो रहे हैं। उनकी लेखन शैली में गहरी संवेदनशीलता और सामाजिक चेतना झलकती है, जो पाठकों को न केवल भावनात्मक रूप से जोड़ती है, बल्कि सामाजिक बदलावों पर चिंतन करने के लिए भी प्रेरित करती है।
निष्कर्ष
"बीती बातें" एक ऐसी कहानी है जो हर उस व्यक्ति को छूती है, जिसने अपने गांव या बचपन को समय के साथ बदलते देखा है। डॉ. नवलपाल प्रभाकर दिनकर ने इस रचना के माध्यम से नॉस्टैल्जिया, आधुनिकता, और सामाजिक मूल्यों के टकराव को बखूबी उकेरा है। यह कहानी न केवल साहित्य प्रेमियों के लिए एक उपहार है, बल्कि समाज के लिए एक दर्पण भी है, जो हमें अपने अतीत और वर्तमान के बीच संतुलन खोजने की प्रेरणा देता है।
आप क्या सोचते हैं? क्या आपने भी अपने गांव या शहर में ऐसे बदलाव देखे हैं? अपनी कहानी हमारे साथ साझा करें।