पौराणिक इतिहास:
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, जल-जूलनी एकादशी की परंपरा त्रेतायुग से जुड़ी है। इस दिन भगवान श्रीकृष्ण या श्रीविष्णु को डोल (पालकी) में विराजमान कर जलाशय या नदी किनारे ले जाया जाता है। मान्यता है कि इस दिन भगवान विष्णु जलविहार करते हैं, इसलिए इसे "जल-जूलनी" यानी जल में झूलने वाली एकादशी कहा जाता है।
कुछ ग्रंथों में वर्णन है कि भगवान विष्णु जब योगनिद्रा में होते हैं (आषाढ़ शुक्ल एकादशी – देवशयनी एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी – देवउठनी एकादशी तक), तब यह पर्व आता है और इसे उनका 'जलविहार' काल माना जाता है। इसी अवसर पर भक्तगण डोल सजाकर उन्हें नदी, तालाब या सरोवर में स्नान कराते हैं।
धार्मिक महत्व:
*
पुण्यफल : इस व्रत को करने से व्यक्ति को पापों से मुक्ति और मोक्ष की प्राप्ति होती है।
*
व्रत विधि : भक्त इस दिन उपवास रखते हैं, भगवान विष्णु का ध्यान करते हैं, भजन-कीर्तन करते हैं, और रात्रि जागरण भी करते हैं।
*
डोल यात्रा : गाँव-शहरों में भव्य शोभायात्रा निकाली जाती है। भगवान को डोल में बैठाकर जलाशयों की परिक्रमा कराई जाती है।
*
सामूहिक सहभागिता : कई जगहों पर ग्रामीण समाज सामूहिक रूप से इस उत्सव को मनाते हैं, जिसमें श्रद्धालु मिलकर भगवान को तालाब में स्नान कराते हैं।
सांस्कृतिक रूप:
राजस्थान और मध्य भारत में, यह पर्व सामाजिक समरसता और भक्ति का अनोखा उदाहरण है। सभी समुदाय एकजुट होकर इस पर्व को मनाते हैं।
*
बच्चों व युवाओं में उत्साह : गाँवों में युवा दल भगवान की डोल को कंधों पर उठाकर जयघोष करते हुए गाँव भर में घूमते हैं।
जल-जूलनी एकादशी केवल एक धार्मिक पर्व नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति में आस्था, सेवा, पर्यावरण प्रेम और सामाजिक एकता का प्रतीक बन चुका है। इस दिन जल स्रोतों की सफाई और पूजा करना भी जल संरक्षण की भावना को मजबूत करता है।