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Thursday, July 31, 2025

Charu Aghi / Dehradun /July 23, 2025

हिन्दी साहित्य के लेखक डॉ. नवलपाल प्रभाकर दिनकर की कहानी "माँ" पाठकों के दिलों को छू रही है। यह कहानी ममता, त्याग और पुनर्जनन की ऐसी भावनात्मक यात्रा है, जो पाठकों को न केवल गहरे तक प्रभावित करती है, बल्कि मानवीय रिश्तों की गहराई को भी उजागर करती है।

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कला-साहित्य / माँ की ममता और पुनर्जनन की भावनात्मक कहानी

कहानी | माँ


सात वर्षीय राहुल, तीस वर्षीय राजेंद्र, और पच्चीस वर्षीया कमला इस कहानी के पात्र हैं, और यह कहानी इन्हीं के इर्द-गिर्द घूमती है। कहानी इस प्रकार है:---

राहुल की भोली-सी आवाज घर में गूँजी, "माँ, तुम कहाँ हो? मुझे बहुत भूख लगी है। खाना दो।" उसकी आँखों में भूख के साथ मासूम बेचैनी थी।
"अभी बना रही हूँ, बेटे," रसोई से कमला की स्नेह भरी आवाज आई। "तेरा पापा भी ड्यूटी से आने वाला है। हम सब साथ में खाना खाएँगे।"
"नहीं, मैं तो अभी खाऊँगा!" राहुल ने जिद पकड़ ली।
कमला ने हल्की मुस्कान के साथ आँखें तरेरीं, "तू बहुत शरारती हो गया है, और जिद्दी भी। ला, मैं तेरे लिए दो रोटियाँ बना देती हूँ।"
राहुल की आँखें चमक उठीं। "आह! आज तो तुरंत खाना मिल गया। जी भरकर खाऊँगा," उसने मन ही मन सोचा। उसने खाना खाया और थकान से चूर होकर अपनी छोटी-सी चारपाई पर सो गया। शाम करीब सात बजे, जब सूरज की आखिरी किरणें बुझ रही थीं, राजेंद्र अपनी ड्यूटी से थका-हारा घर लौटा। दरवाजे पर कदम रखते ही उसकी नजर राहुल को ढूँढने लगी। "कमला, कहाँ हो? आज राहुल दिखाई नहीं दे रहा। कहाँ है वो?"
"वो तो कब का खाना खाकर सो चुका है," कमला ने रसोई से जवाब दिया, उसकी आवाज में हल्की चिंता थी।
"इतनी जल्दी सो गया?" राजेंद्र ने भौंहें सिकोड़ते हुए कहा। "वो तो कभी इतनी जल्दी नहीं सोता।"
"पता नहीं, क्या बात है। तुम ही जाकर देख लो," कमला ने कहा, उसका स्वर अब गंभीर हो चला था।
"ठीक है, मैं देखता हूँ। तुम इतने में दो गिलास पानी गर्म करो। मैं हाथ-पैर और मुँह धो लूँगा।"
"ठीक है," कमला ने सहमति दी। राहुल के छोटे-से कमरे में पहुँचकर राजेंद्र ने उसे हल्के से हिलाया। "राहुल, बेटा, क्या बात है? आज इतनी जल्दी सो गए?"
मगर राहुल की साँसें तेज थीं, और उसका छोटा-सा शरीर तप रहा था, मानो आग का गोला। राजेंद्र का दिल धक् से रह गया। "कमला, जल्दी यहाँ आओ!"
"क्या हुआ?" कमला ने रसोई से भागते हुए पूछा।
"राहुल को तेज बुखार है! यहाँ इसके पास बैठो। मैं डॉक्टर को लाता हूँ।" थकान को दरकिनार करते हुए राजेंद्र ने साइकिल उठाई और अंधेरे में डॉक्टर के घर की ओर दौड़ा। इधर, कमला ने सारा काम छोड़ दिया और राहुल के पास बैठ गई। उसका माथा तप रहा था। वह उसका सिर सहलाती रही, उसकी आँखों में चिंता और ममता का मिश्रण था। "बेटा, सब ठीक हो जाएगा," वह धीरे से बुदबुदाई। जल्दी ही राजेंद्र डॉक्टर को लेकर लौटा। डॉक्टर ने राहुल का मुआयना किया, एक इंजेक्शन दिया, और कुछ दवाएँ देते हुए बोला, "चिंता मत करो। थोड़ा-सा बुखार है। सुबह तक ठीक हो जाएगा।" राहुल अचेत-सा पड़ा था, मानो गहरी नींद में खोया हो। रात करीब एक बजे, जब घर में सन्नाटा छाया था, कमला अभी भी राहुल के पास बैठी थी।
"कमला, तुम सो जाओ। सुबह मुझे ऑफिस जाना है," राजेंद्र ने थके स्वर में कहा।
"मैं बाद में सो जाऊँगी," कमला ने जवाब दिया, उसकी नजर राहुल के चेहरे पर टिकी थी। माँ थी वह—उसे नींद कहाँ आने वाली थी? सुबह छह बजे, जब पहली किरण खिड़की से झाँकी, राजेंद्र ने देखा कि कमला अभी भी जाग रही थी। "कमला, तुम सोई ही नहीं?"
"सोई थी, बस यूँ ही बड़बड़ा उठी," कमला ने हल्के से मुस्कराते हुए कहा, मगर उसकी थकी आँखें उसकी रात की कहानी बयान कर रही थीं।
तभी राहुल की कमजोर आवाज गूँजी, "माँ, मुझे प्यास लगी है।"
"अभी लाती हूँ, बेटा।" कमला जल्दी से रसोई में गई और दो गिलास गर्म पानी लेकर आई। राहुल ने गटक-गटक कर पानी पी लिया। "मुझे क्या हुआ था, माँ?" उसने मासूमियत से पूछा।
"कुछ नहीं, बेटे। थोड़ा-सा बुखार था। अब तू ठीक है न?" कमला ने उसके माथे पर हाथ फेरते हुए पूछा।
"हाँ, मैं ठीक हूँ। पानी गर्म करो, मैं बाहर घूमकर आता हूँ," राहुल कहता हुआ बाहर निकल गया, उसकी चाल में फिर से शरारत लौट आई थी। "इस जिगर के टुकड़े के लिए इतना परेशान मत हुआ करो," राजेंद्र ने हल्के से डाँटते हुए कहा।
"क्यों न होऊँ? मेरा बेटा है," कमला ने जवाब दिया, उसकी आवाज में ममता थी।
"और मेरा?" राजेंद्र ने हँसते हुए पूछा।
कमला चुपचाप रसोई में चली गई। उसने पानी गर्म किया और खाना बनाने लगी। मगर अचानक उसके सीने में तेज दर्द उठा। "राजेंद्र, मुझे जोर से दर्द हो रहा है!" उसकी आवाज काँप रही थी। "क्या हुआ, माँ?" राहुल अभी नहाकर बाहर आया था। उसने जल्दी से कपड़े पहने और डॉक्टर को लेने दौड़ा। राजेंद्र उस समय घर पर नहीं था। जब वह लौटा, तो घर का माहौल बदला हुआ था। कमला पलंग पर लेटी थी, उसका चेहरा पीला पड़ चुका था। डॉक्टर उसे इंजेक्शन दे रहा था। "क्या हुआ, डॉक्टर साहब?" राजेंद्र ने घबराते हुए पूछा।
"थोड़ा-सा दिल का दौरा था। दवाइयाँ और इंजेक्शन दे दिया है। जल्दी ठीक हो जाएगी," डॉक्टर ने भरोसा दिलाया। कुछ देर बाद, कमला को होश आया। कमरे में सन्नाटा था, केवल राहुल की सुबकियाँ गूँज रही थीं। राजेंद्र बेचैन होकर इधर-उधर टहल रहा था। कमला ने कमजोर आवाज में पुकारा, "राहुल, बेटे, मेरे पास आ। राजेंद्र, तुम भी आओ।"
"अब तुम्हारी तबीयत कैसी है?" राजेंद्र ने उसका हाथ थामते हुए पूछा, उसकी आँखें नम थीं।
"मैं ठीक हूँ, पर तुमसे कुछ कहना चाहती हूँ," कमला की साँसें भारी थीं। "मैं अब ज्यादा दिन की मेहमान नहीं हूँ। मेरे राहुल को माँ के प्यार की कमी न होने देना। हो सके, तो मैं फिर लौटूँगी।" यह कहते ही कमला की साँसें थम गईं। कमरे में सन्नाटा छा गया, केवल राहुल का रुदन और राजेंद्र की चीखें गूँज रही थीं। राजेंद्र कमला के निर्जन शरीर से लिपटकर फूट-फूटकर रोया, मानो उसका संसार ही उजड़ गया हो। राहुल कोने में सिमटकर रो रहा था, उसकी छोटी-सी दुनिया अंधेरे में डूब गई थी। कमला की देह को गाँव ले जाया गया। वहाँ राजेंद्र के माता-पिता, दादी, और पूरे परिवार ने मिलकर उसका अंतिम संस्कार किया। गाँव की गलियों में मातम का माहौल था। कुछ दिन बाद, राजेंद्र राहुल को लेकर शहर लौट आया। अब राहुल स्कूल से सीधे घर नहीं जाता, बल्कि राजेंद्र के ऑफिस चला जाता। वहाँ कर्मचारी उसे प्यार करते, कभी दुकान, कभी सैर पर ले जाते। सात महीनों में राहुल धीरे-धीरे सामान्य होने लगा, मगर राजेंद्र का दिल टूट चुका था। वह कमला के वियोग में पागल-सा हो गया था। ऑफिस में काम उसे व्यस्त रखता, मगर घर लौटते ही कमला की यादें उसे घेर लेतीं। रसोई में उसकी हँसी, राहुल के साथ उसकी बातें—सब कुछ जैसे अभी भी जीवित था। वह चुपके से आँसू पोंछता, ताकि राहुल को पता न चले। दोनों बाप-बेटे खाना बनाते, खाते, और सो जाते। सुबह जल्दी उठकर राजेंद्र राहुल को नहलाता, खुद तैयार होता, और दोनों निकल पड़ते। राहुल का स्कूल राजेंद्र के ऑफिस के पास था। वह उसे स्कूल छोड़कर ऑफिस चला जाता। एक दिन स्कूल में नई हिंदी अध्यापिका आई। बच्चे उत्साहित थे, मगर राहुल की आँखें उदास थीं। वह अपनी माँ को याद कर रहा था। कक्षा में वह सबसे आगे बैठा था, मगर जब अध्यापिका आई, तो सभी बच्चे सम्मान में खड़े हो गए, सिवाय राहुल के। "ये कौन है जो अभी तक बैठा है?" अध्यापिका ने सौम्य स्वर में पूछा।
"जी, बहनजी, इसकी माँ का देहांत हो गया है। तब से यह गुमसुम रहता है," एक बच्चे ने बताया।
"क्या नाम है इसका?"
"राहुल, बहनजी।"
"राहुल, मेरे पास आ," अध्यापिका ने कुर्सी पर बैठते हुए कहा, उसकी आवाज में अपनापन था। मगर राहुल चुपचाप बैठा रहा। अध्यापिका उसके पास गई और बोली, "राहुल, बेटा, खड़े हो जाओ।"
अचानक राहुल खड़ा हुआ और अध्यापिका के पैरों से लिपट गया। "माँ, तुम इतने दिनों कहाँ थीं?" वह सुबकते हुए बोला। "आज आईं और अब भी मुझसे प्यार नहीं करतीं?" अध्यापिका का दिल पिघल गया। उसका हाथ अनायास राहुल के सिर पर फिरने लगा। राहुल रोते हुए उससे लिपटा रहा। अध्यापिका की आँखें भी नम हो गईं, मगर उसने खुद को सँभाला और राहुल को शांत कर कुर्सी पर वापस बैठ गई। राहुल अब खुश रहने लगा। वह रोज उत्साह से स्कूल जाता। एक दिन उसने अध्यापिका से कहा, "आप मेरे घर कब चलेंगी?"
"बेटा, मुझे स्कूल में माँ मत बुलाओ," अध्यापिका ने हल्के से डाँटा। "घर की बात फिर कभी करेंगे।" राहुल अब समय पर स्कूल जाता और पढ़ाई में मन लगाने लगा। राजेंद्र उसके इस बदलाव से हैरान था। उसने राहुल को इतना खुश केवल कमला के साथ देखा था। एक शाम, राहुल अपनी अध्यापिका को घर ले आया। जब राजेंद्र घर लौटा, तो देखा कि बाहरी दरवाजा खुला था। वह ठिठक गया। तभी राहुल की आवाज आई, "माँ, एक और रोटी लाओ।"
"कौन है ये?" राजेंद्र ने सोचा और अंदर गया।
"पिताजी, आज माँ घर आई हैं!" राहुल ने उछलते हुए कहा।
"माँ?" राजेंद्र ने भौचक्का होकर पूछा।
"हाँ, रसोई में हैं।" राजेंद्र रसोई में गया। वहाँ खड़ी थी एक युवती—हुबहू कमला जैसी। वही चेहरा, वही नाक-नक्श। एक पल को उसे लगा जैसे कमला लौट आई हो। "आप...?"
"जी, मैं राहुल की अध्यापिका हूँ। वो मुझे यहाँ ले आया," उसने संकोच के साथ कहा।
"कई दिनों से राहुल जिद कर रहा था, तो मैं आज चली आई। अब मुझे जाना चाहिए।"
"अरे, पहली बार आई हैं, बैठिए। दो-चार बातें करते हैं," राजेंद्र ने आग्रह किया।
"नहीं, फिर कभी।"
"अच्छा, अपना नाम तो बताइए।"
"कमला।" यह नाम सुनकर राजेंद्र सन्न रह गया। वही नाम, वही शक्ल। वह रात भर सोचता रहा—क्या यह कमला की आत्मा है? अगले दिन, राजेंद्र जल्दी घर लौटा। कमला फिर आई थी। उसने हिम्मत जुटाकर पूछा, "क्या आपकी शादी हुई है?"
"नहीं।"
"क्या आप मुझसे शादी करेंगी? मेरा मतलब, राहुल आपको बहुत प्यार करता है। उसे उसकी माँ मिल जाएगी, और मेरा वीरान घर फिर से आबाद हो जाएगा।"
"मैं सोचूँगी," कमला ने शांत स्वर में कहा।
"कितना समय चाहिए?"
"एक दिन। मैं चलती हूँ।"
"ठीक है, दो दिन का समय देता हूँ।" दो दिन बाद, कमला फिर आई। "राहुल, तुम्हारे पिताजी कहाँ हैं?"
"यहाँ हूँ, कमला जी," राजेंद्र ने कहा। "आपने कुछ सोचा?"
"हाँ, मैंने सोच लिया। मैं आपसे विवाह करने को तैयार हूँ।" राहुल और राजेंद्र की आँखें खुशी से चमक उठीं। जल्दी ही उनकी शादी हो गई। राहुल को उसकी माँ मिल गई, और राजेंद्र को उसकी खोई हुई कमला। उस वीरान घर में फिर से बहार आ गई।


साहित्यिक महत्व:


डॉ. दिनकर की यह कहानी हिन्दी साहित्य में ममता और परिवार के महत्व को रेखांकित करती है। कहानी में माँ के किरदार को एक ऐसी शक्ति के रूप में दर्शाया गया है, जो मृत्यु के बाद भी अपने परिवार को जोड़े रखती है। साहित्य समीक्षकों का मानना है कि यह कहानी न केवल भावनात्मक गहराई लिए हुए है, बल्कि यह पुनर्जनन और आशा के प्रतीक के रूप में भी उभरती है।

पाठकों की प्रतिक्रिया:


हिन्दी साहित्य के प्रेमी इस कहानी को एक कालजयी रचना मानते हैं, "डॉ. दिनकर ने 'माँ' में ममता के उस रूप को उजागर किया है, जो समय और मृत्यु को भी पार कर जाता है। यह कहानी हर उस पाठक को छूती है जो माँ के प्यार को समझता है।"
यह कहानी भारतीय संस्कृति में माँ की महत्ता को और भी गहराई से स्थापित करती है।

डॉ. नवलपाल प्रभाकर दिनकर की "माँ" न केवल एक कहानी है, बल्कि यह एक ऐसी भावनात्मक यात्रा है जो पाठकों को परिवार, प्रेम और आशा के महत्व को याद दिलाती है। यह कहानी हमें सिखाती है कि माँ का प्यार कभी खत्म नहीं होता, चाहे वह शारीरिक रूप से हमारे बीच हो या न हो।

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