कहानी | कॉरपोरेट मजदूर
स्नेहा की कहानी: सपनों से शुरू, तनाव में खोई ज़िंदगी
स्नेहा के हाथ काँप रहे थे जब वह अपना रिजिग्नेशन लेटर टाइप कर रही थी। सर्दी के बावजूद उसे पसीना आ रहा था, और उसका दिल तेज़ी से धड़क रहा था। जिस कंपनी को उसने अपने तीन साल दिए, आज उसे वह कंपनी छोड़नी पड़ रही थी। चार साल पहले स्नेहा अपने सपनों को पंख देने के लिए जयपुर से मुंबई आई थी। एमबीए टॉपर होने के कारण उसे एक छोटी-सी कंपनी में नौकरी मिली, जो सिर्फ़ उसका गुज़ारा चला रही थी। स्नेहा कॉलेज में अव्वल थी और अपनी कंपनी में भी सबसे मेहनती कर्मचारी थी। तभी एक बड़ी सॉफ्टवेयर कंपनी में मार्केटिंग असिस्टेंट की नौकरी के लिए इंटरव्यू हुए। शानदार सैलरी के साथ स्नेहा का चयन हो गया।
नई नौकरी के साथ स्नेहा एक बेहतर अपार्टमेंट में शिफ्ट हो गई। शुरुआत में वह रोज़ अपनी माँ से फोन पर बात करती थी और हर वीकेंड दोस्तों के साथ गपशप करती थी। लेकिन धीरे-धीरे सब बदल गया। स्नेहा इतनी व्यस्त हो गई कि माँ से बात अब सिर्फ़ मैसेज तक सीमित रह गई, और दोस्तों से महीनों बाद चैट होती थी। उसकी मेहनत और शानदार प्रदर्शन के कारण कंपनी ने उसे कई बड़े प्रोजेक्ट्स की मार्केटिंग टीम में शामिल किया। जल्द ही उसे प्रोजेक्ट लीडर बना दिया गया। अब स्नेहा सुबह पांच बजे उठती और रात एक-दो बजे घर लौटती। यह उसकी ज़िंदगी का हिस्सा बन गया।
तीन साल में स्नेहा मार्केटिंग असिस्टेंट से मार्केटिंग मैनेजर बन गई। कंपनी में हर बड़ा फैसला अब उसकी मंजूरी से होता था। डायरेक्टर ने उसे कई ज़िम्मेदारियाँ सौंप दीं। दूर से उसकी ज़िंदगी सभी को प्रेरणादायक लगती थी, लेकिन स्नेहा के मन में कुछ कमी थी, जो उसे समझ नहीं आ रही थी। वह बीमार होने पर दवाइयाँ खाकर ऑफिस में ही थोड़ा आराम कर लेती। उसकी टेबल पर फाइलें बढ़ती गईं। नींद की समस्या शुरू हो गई, और उसे इंसोम्निया की दवाइयाँ लेनी पड़ीं। एक दिन ऑफिस में काम करते वक्त उसे चक्कर आए, लेकिन उसने इसे नज़रअंदाज़ कर दिया। शाम होते-होते उसकी तबीयत बिगड़ गई, और वह बेहोश हो गई।
स्वास्थ्य संकट और कॉरपोरेट की कठोरता
जब स्नेहा की आँख खुली, तो वह हॉस्पिटल में थी। उसकी असिस्टेंट ने डॉक्टर को बुलाया। डॉक्टर ने उसे आराम करने और पौष्टिक खाना खाने की सलाह दी, लेकिन स्नेहा ने इसे अनसुना कर दिया। कंपनी का एक बड़ा प्रोजेक्ट शुरू होने वाला था। डायरेक्टर ने सारी ज़िम्मेदारी स्नेहा को सौंप दी, यह कहकर कि, "तुम मेरी सबसे काबिल कर्मचारी हो। यह प्रोजेक्ट तुम्हें ही संभालना है।"
स्नेहा फिर से जी-जान से काम में जुट गई। लेकिन पिछले दस दिनों से कुछ अजीब हो रहा था। वह अचानक रोने लगती, काम करते वक्त उसका दिल तेज़ी से धड़कने लगता, और हाथ काँपने लगते। रात को नींद आना बंद हो गया। नींद की गोलियाँ भी अब बेअसर थीं। उसे अजीब-सी बेचैनी रहने लगी। एक दिन फिर उसे चक्कर आए, और वह बेहोश हो गई।
हॉस्पिटल में होश आने पर डॉक्टर उसे साइकियाट्रिक वार्ड में ले गए। वहाँ उसे डॉ. अभिषेक से मिलवाया गया, जो साइकियाट्रिस्ट थे और स्नेहा के पुराने क्लासमेट निकले। अभिषेक ने उसे पहचान लिया, और पुरानी यादें ताज़ा कर दीं। इतने समय बाद किसी अपने को देखकर स्नेहा को सुकून मिला।
एक दोस्त की सलाह और नई शुरुआत
डॉ. अभिषेक ने पूछा, "स्नेहा, आखिरी बार तुमने घर का खाना कब खाया?"
स्नेहा बोली, "शायद छह-सात महीने पहले।"
"माँ से फोन पर कब बात हुई?"
"लगभग एक महीने पहले।"
"और आखिरी बार अच्छी नींद कब ली?"
स्नेहा सोच में पड़ गई। तभी अभिषेक ने कहा, "स्नेहा, तुमने अपनी ज़िंदगी को मशीन बना लिया है। कब खाना, कब सोना, कब जीना—सब भूल चुकी हो। अब से अपनी सेहत और निजी ज़िंदगी को प्राथमिकता दो।"
स्नेहा ने कहा, "लेकिन अभी मैं जोखिम नहीं ले सकती। बड़ा प्रोजेक्ट है, और डायरेक्टर नहीं मानेंगे।" अभिषेक ने उसे डायरेक्टर से बात करने को कहा। फोन पर अभिषेक ने डायरेक्टर को स्नेहा की शारीरिक और मानसिक हालत बताई और कुछ दिन की छुट्टी देने को कहा। लेकिन डायरेक्टर ने जवाब दिया, "ऐसे कैसे छुट्टी दे दूँ? कुछ दवाइयाँ दे दीजिए, वह ठीक हो जाएगी। बहुत काम बाकी है।"
अभिषेक ने गंभीर होकर कहा, "अगर कल को स्नेहा को हार्ट अटैक आ गया, तब क्या होगा?" डायरेक्टर गुस्से में बोले, "कंपनी को इससे मतलब नहीं। यहाँ हर सेकंड कीमती है, और इसके लिए ही उसे पैसे मिलते हैं।" यह कहकर उन्होंने फोन काट दिया।
अभिषेक ने स्नेहा को समझाया, "देखो, इन लोगों को रोबोट चाहिए, इंसान नहीं। इन्हें तुम्हारी सेहत से कोई फर्क नहीं पड़ता। ये सिर्फ़ तुमसे काम करवाकर मुनाफा कमाना चाहते हैं।" स्नेहा सोच में पड़ गई। उसने अभिषेक से पूछा, "अगर मैं नौकरी छोड़ दूँ, तो क्या करूँगी? पैसे कहाँ से आएँगे?" अभिषेक ने मुस्कुराते हुए कहा, "मेरे हॉस्पिटल में एचआर की नौकरी है। तुम्हारी कंपनी जितनी सैलरी नहीं, लेकिन सम्मान और सुकून ज़रूर मिलेगा। करोगी?"
नई ज़िंदगी की ओर कदम
स्नेहा ने हामी भरी। उसने रिजिग्नेशन लेटर टाइप किया और कंपनी को मेल कर दिया। उसने हॉस्पिटल में नई नौकरी जॉइन कर ली। अब वह रोज़ माँ से बात करती, वीकेंड पर दोस्तों के साथ घूमती, और धीरे-धीरे ठीक होने लगी। उसकी ज़िंदगी में फिर से रंग लौट आए।
कॉरपोरेट दुनिया का कड़वा सच
स्नेहा की कहानी सिर्फ़ एक व्यक्ति की कहानी नहीं है। आज देश के लाखों युवा, जो महँगी डिग्रियाँ लेकर कॉरपोरेट की दुनिया में कदम रखते हैं, मशीन की तरह काम करते हैं। कंपनियाँ उन्हें न तो खाने का समय देती हैं, न सोने का, और न ही अपनों से बात करने का। नतीजा? डिप्रेशन, चिंता, और कई बार ज़िंदगी का खो जाना।
"कॉरपोरेट संस्कृति में कर्मचारियों को सिर्फ़ उत्पादकता के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। कंपनियों को अपने कर्मचारियों की मानसिक और शारीरिक सेहत को प्राथमिकता देनी चाहिए। सरकार को भी ऐसी नीतियाँ बनानी चाहिए जो कर्मचारियों के अधिकारों की रक्षा करें।"
स्नेहा की कहानी हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या सफलता की दौड़ में हम अपनी सेहत और अपनों को भूल रहे हैं? कंपनियों को अपने कर्मचारियों के लिए मानवीय दृष्टिकोण अपनाने की ज़रूरत है। साथ ही, सरकार को ऐसी नीतियाँ बनानी चाहिए जो कर्मचारियों के कार्य-जीवन संतुलन को सुनिश्चित करें। तभी हम एक स्वस्थ और खुशहाल समाज की ओर बढ़ सकेंगे।