मामले का पृष्ठभूमि और विवरण
यह मामला 14 मार्च 2025 को दिल्ली में जस्टिस यशवंत वर्मा के आधिकारिक आवास (30, तुगलक क्रीसेंट) में आग लगने की घटना से शुरू हुआ। आग बुझाने के दौरान दिल्ली अग्निशमन सेवा को कथित तौर पर भारी मात्रा में आंशिक रूप से जली हुई नकदी मिली, जिसकी अनुमानित राशि लगभग 15 करोड़ रुपये बताई गई। इस घटना ने व्यापक विवाद को जन्म दिया और भ्रष्टाचार के आरोपों को हवा दी।
जस्टिस वर्मा, जो उस समय दिल्ली उच्च न्यायालय में कार्यरत थे, ने इन आरोपों का खंडन करते हुए कहा कि यह नकदी उनकी या उनके परिवार की नहीं थी और यह एक साजिश का हिस्सा है। उन्होंने दावा किया कि आग उनके आवास के एक अनलॉक आउटहाउस में लगी थी, जहां कोई भी आ-जा सकता था।
सुप्रीम कोर्ट की कार्रवाई
घटना के बाद, तत्कालीन सीजेआई संजीव खन्ना ने 22 मार्च 2025 को तीन सदस्यीय आंतरिक जांच समिति का गठन किया, जिसमें पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस शील नागू, हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जी.एस. संधावालिया और कर्नाटक उच्च न्यायालय की जज जस्टिस अनु शिवरामन शामिल थे। समिति ने जस्टिस वर्मा के आवास का दौरा किया और 50 से अधिक लोगों के बयान दर्ज किए, जिसमें दिल्ली पुलिस आयुक्त संजय अरोड़ा और दिल्ली अग्निशमन सेवा के प्रमुख अतुल गर्ग शामिल थे।
3 मई 2025 को, समिति ने अपनी 25 पेज की रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट को सौंपी, जिसमें प्रथम दृष्टया आरोपों को सही पाया गया। इसके बाद, सीजेआई खन्ना ने जस्टिस वर्मा को इस्तीफा देने या स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेने का सुझाव दिया, जिसे वर्मा ने अस्वीकार कर दिया। इसके परिणामस्वरूप, सीजेआई ने समिति की रिपोर्ट और वर्मा के जवाब की प्रति राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को भेज दी।
सुप्रीम कोर्ट ने पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश डी.के. उपाध्याय की प्रारंभिक रिपोर्ट, जस्टिस वर्मा का जवाब और जले हुए नोटों की तस्वीरें व वीडियो अपनी वेबसाइट पर सार्वजनिक किए।
याचिका और सुप्रीम कोर्ट का फैसला
वकील मैथ्यू नेदुम्परा और तीन अन्य याचिकाकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर तत्काल आपराधिक कार्यवाही शुरू करने की मांग की। उन्होंने तर्क दिया कि नकदी की बरामदगी एक संज्ञेय अपराध है, जो भारतीय न्याय संहिता और भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत दंडनीय है। उन्होंने 1991 के के. वीरस्वामी बनाम भारत संघ मामले के फैसले को भी चुनौती दी, जिसमें कहा गया था कि उच्च न्यायालय या सुप्रीम कोर्ट के जज के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने से पहले सीजेआई की मंजूरी जरूरी है। नेदुम्परा ने इसे अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) का उल्लंघन बताया और कहा कि यह पुलिस को अपने वैधानिक कर्तव्यों का पालन करने से रोकता है।
20 मई 2025 को, सुप्रीम कोर्ट ने याचिका पर तत्काल सुनवाई के लिए सहमति जताई, बशर्ते याचिका में खामियों को दूर किया जाए। सीजेआई बी.आर. गवई और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने इसे 21 मई के लिए सूचीबद्ध किया।
21 मई 2025 को, जस्टिस अभय एस. ओक और जस्टिस उज्ज्वल भुइयां की पीठ ने याचिका को खारिज कर दिया। कोर्ट ने कहा कि आंतरिक जांच प्रक्रिया पूरी हो चुकी है और सीजेआई ने अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति और पीएम को भेज दी है। याचिकाकर्ता को पहले इन प्राधिकारियों के समक्ष अपनी शिकायत दर्ज करनी होगी। कोर्ट ने यह भी कहा कि वीरस्वामी मामले से संबंधित अन्य मांगों पर इस चरण में विचार करने की आवश्यकता नहीं है।
आंतरिक जांच प्रक्रिया और कानूनी ढांचा
सुप्रीम कोर्ट ने 1997 में आंतरिक जांच प्रक्रिया (इन-हाउस प्रोसीजर) स्थापित की थी, जिसे 1999 में संशोधित किया गया। यह प्रक्रिया उच्च न्यायपालिका में अनुशासन सुनिश्चित करने के लिए बनाई गई है। इसके तहत, सीजेआई द्वारा नियुक्त तीन न्यायाधीशों की समिति आरोपों की जांच करती है। यदि समिति आरोपों को प्रथम दृष्टया सही पाती है, तो सीजेआई के पास कई विकल्प हैं, जैसे एफआईआर दर्ज करने की सिफारिश करना या संसद को महाभियोग के लिए मामला भेजना।
1991 के के. वीरस्वामी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि उच्च न्यायालय और सुप्रीम कोर्ट के जज भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 के तहत "लोक सेवक" हैं, लेकिन उनकी स्वतंत्रता की रक्षा के लिए, उनके खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज करने से पहले सीजेआई की मंजूरी जरूरी है। यह प्रक्रिया फालतू उत्पीड़न से बचाने के साथ-साथ जवाबदेही सुनिश्चित करती है।
जांच और अन्य घटनाक्रम
स्थानांतरण और न्यायिक कार्य से हटाना: सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने 24 मार्च 2025 को जस्टिस वर्मा को उनके मूल कोर्ट, इलाहाबाद उच्च न्यायालय में स्थानांतरित करने की सिफारिश की। केंद्र सरकार ने 28 मार्च को इसकी अधिसूचना जारी की। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश अरुण भंसाली को निर्देश दिया गया कि वर्मा को फिलहाल कोई न्यायिक कार्य न सौंपा जाए।
पुलिस और फोरेंसिक जांच: दिल्ली पुलिस ने 26 मार्च को जस्टिस वर्मा के आवास का दौरा किया और सीसीटीवी फुटेज की जांच की। फोरेंसिक टीमों ने नोटों की प्रामाणिकता की पुष्टि की।
सार्वजनिक प्रतिक्रिया: X पर कुछ पोस्ट्स में इस मामले को लेकर जनता की नाराजगी देखी गई। कुछ ने इसे सामान्य नागरिकों और जजों के लिए अलग-अलग न्याय का उदाहरण बताया। हालांकि, ये पोस्ट्स केवल सार्वजनिक धारणा को दर्शाती हैं और तथ्यात्मक साक्ष्य नहीं मानी जा सकतीं।
विवाद और व्यापक प्रभाव
इस मामले ने न्यायपालिका में पारदर्शिता और जवाबदेही के सवाल खड़े किए हैं। वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने नियुक्ति प्रक्रिया में अधिक पारदर्शिता की मांग की, जबकि पूर्व सॉलिसिटर जनरल हरीश साल्वे ने जांच की प्रक्रिया पर सवाल उठाए। उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) को पुनर्जनन की वकालत की।
इलाहाबाद हाईकोर्ट बार एसोसिएशन ने शुरू में वर्मा के स्थानांतरण का विरोध किया और हड़ताल की, लेकिन सीजेआई से मुलाकात के बाद इसे वापस ले लिया।
सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस यशवंत वर्मा के खिलाफ एफआईआर की मांग को खारिज करते हुए याचिकाकर्ता को राष्ट्रपति और पीएम के पास जाने का निर्देश दिया। कोर्ट ने आंतरिक जांच प्रक्रिया का हवाला देते हुए कहा कि यह मामला अभी प्रक्रियागत चरण में है और सीजेआई द्वारा भेजी गई रिपोर्ट के आधार पर आगे की कार्रवाई होगी। यह मामला न्यायपालिका में जवाबदेही और स्वतंत्रता के बीच संतुलन के महत्व को रेखांकित करता है।