डिजिटल खाई पाटना अब संवैधानिक दायित्व': सुप्रीम कोर्ट
जस्टिस आर. महादेवन और जस्टिस जेबी पारदीवाला की पीठ ने यह फैसला दो दृष्टिहीन एसिड अटैक पीड़ित महिलाओं की याचिका पर सुनाया। याचिकाकर्ताओं ने बताया कि मौजूदा ई-केवाईसी प्रक्रिया में उन्हें डिजिटल "लाइव फोटो" देने में अक्षम होने के कारण बैंक खाता खोलने और सिम कार्ड प्राप्त करने जैसे मूलभूत अधिकारों से वंचित होना पड़ रहा है।
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि ऐसी प्रक्रियाएं उन नागरिकों के साथ अन्याय हैं जो दृष्टिहीन या दिव्यांग हैं। ऐसे में सरकार को वैकल्पिक केवाईसी प्रक्रिया, ब्रेल, और वॉइस इनेबल्ड सेवाएं जैसे समावेशी उपाय तत्काल लागू करने होंगे।
डिजिटल बदलाव हो न्यायसंगत और समावेशी
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि डिजिटल युग में शासन, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं और आर्थिक अवसर मुख्य रूप से ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स पर निर्भर हैं। ऐसे में डिजिटल पहुंच न होना, सामाजिक और आर्थिक बहिष्करण का कारण बनता है, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों, वरिष्ठ नागरिकों, भाषाई अल्पसंख्यकों और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए।
कोर्ट ने यह भी कहा कि "डिजिटल ट्रांजिशन केवल सुविधा नहीं, बल्कि समानता आधारित संरचना बननी चाहिए। यह तभी संभव है जब सिस्टम दृष्टिहीन, श्रवण बाधित, कम पढ़े-लिखे और तकनीकी रूप से पिछड़े नागरिकों के लिए भी उपयोगी हो।"
आरबीआई और सरकार को दिशानिर्देश देने का निर्देश
फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार, संबंधित एजेंसियों और रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया को यह निर्देश दिया कि वे डिजिटल 'लाइवनेस' चेक के लिए समावेशी और वैकल्पिक मानक तैयार करें। साथ ही पेपर-बेस्ड केवाईसी विकल्प को भी जारी रखने की बात कही गई, ताकि कोई भी नागरिक डिजिटल पहचान से वंचित न हो।
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला स्पष्ट करता है कि डिजिटल अधिकार अब केवल तकनीकी सुविधा नहीं, बल्कि नागरिकों की गरिमा, स्वतंत्रता और समान भागीदारी का मूल संवैधानिक पहलू है। यह निर्णय सरकारों के लिए एक चेतावनी भी है — डिजिटल डिवाइड को अब नीति के मुद्दे के रूप में नहीं, बल्कि मानवाधिकार के संकट के रूप में देखा जाए।