"बचपना"
जब याद आता है बचपना
मन भरने लगता है उडारी
चेहरा हो जाता खिला-खिला ।
आंखों में वो शरारती भाव
देह सुडौल हाव-भाव नटखट
करके ऊंची गर्दन चलना
हर काम करते थे झटपट
शरीर होता था तना-तना ।
जब याद आता है बचपना
मन भरने लगता है उडारी
चेहरा हो जाता है खिला-खिला ।
जब होता सर्दी का मौसम
जलाते उपले बीच आंगन
हाथ सेंकते बैठ चारों ओर
मन खुशी से होता प्रसन्न
शकरकंद भुनते आग जला ।
जब याद आता है बचपना
मन भरने लगता है उडारी
चेहरा हो जाता है खिला-खिला ।
गर्मी की तपती दोपहरी में,
जाते गांव के बाहर उपवन में
आंख मिचने का ढोंग रचाकर
पैर दबा चुपके से निकलते
अपने घर वालों को सुला ।
जब याद आता है बचपना
मन भरने लगता है उडारी
चेहरा हो जाता है खिला-खिला ।
कविता की ये पंक्तियाँ नॉस्टेल्जिया का एक ऐसा दरवाज़ा खोलती हैं, जहां पाठक अपने बचपन की गलियों में लौट जाता है। चाहे सर्दियों की अलाव वाली रातें हों, या गर्मियों की दोपहर में उपवन की सैर — दिनकर की यह कविता उन सब क्षणों को फिर से जीने जैसा एहसास कराती है।
ग्रामीण जीवन की सुगंध
कविता में "उपले", "शकरकंद", "आंख मिचना" जैसे शब्द केवल बिम्ब नहीं हैं, बल्कि वे एक पूरे युग की स्मृति हैं — जो आज के डिजिटल युग में दुर्लभ होते जा रहे हैं।
साहित्यिक समीक्षा
विभिन्न आलोचक इस रचना को "ग्रामीण लोकजीवन की आत्मा और बाल्यकाल की संवेदना" का एक सुंदर समन्वय मानते हैं। यह कविता उन सभी पाठकों के लिए एक आत्मीय यात्रा है, जो आज भी अपने भीतर एक बच्चा बचा पाए हैं।
लेखक परिचय:
डॉ० नवलपाल प्रभाकर दिनकर, समकालीन हिंदी साहित्य के उभरते नामों में से एक हैं। उनकी कविताएं लोक-संस्कृति, मानवीय अनुभवों और आत्मीय बिंबों से भरपूर होती हैं।