इस कविता में लेखक ने कविता के यथार्थ, उसकी पीड़ा, उसका संघर्ष और अंततः उसकी मुक्ति को अत्यंत संवेदनशीलता के साथ रेखांकित किया है।
कविता | कविता की आत्मा
लिखता हूं मैं जब भी कोई बहाना होता है
यह बहाना भी मेरी कलम को नजराना होता है,
मैंने लिखा राजतंत्र के साये में
तब मेरी कविता एक मजबूर थी
चाटुकारिता का रंग था
निष्प्राण - सी सिसकती कविता मजदूर थी,
लिखा मैंने-
वाहवाही लूटने को
कभी अनाप सनाप कभी अमर्यादित..
बाहर से मैं सुखी था पर
कविता न थी प्रफुल्लित ,
लिखा मैंने कुछ सिक्कों की छाया में
भूख मिटी ,पर कविता कुंद हो गई,
नदी - सी बही नहीं ,
आत्मा उसकी अवरुद्ध हो गई;
कविता लिखी मैंने एक आततायी के लिए
कलम घिसती रही और
दम तोड़ गई,
ताउम्र कविता की धड़कन न सुनी
और वह कफ़न ओढ़ गई,
कविता की आत्मा मुक्त है
नदी -सी तरलता - बच्चे सी सरलता,
सागर - सी विशालता - गंभीरता;
मां - सी ममता, पिता - सी निश्छलता,
धरा के लावे - सी फूटती है कविता
विषाद मुक्त करती है कविता गीता,
सहृदय के पतंगे आकृष्ट हों ऐसी शम्मा है
परमानंद अनुभूति - कविता की आत्मा है।
साहित्यिक विवेचन:
यह कविता मात्र शब्दों का संग्रह नहीं, बल्कि एक आत्मा की आवाज़ है, जो सत्ता, स्वार्थ, भूख और आत्मवंचना से जूझती हुई मुक्त होती है। डॉ. शर्मा का यह काव्य एक आत्मालोचन है, जो उस कवि की पीड़ा को उकेरता है जिसने कविता को अपने जीवन की धड़कन माना।
कविता में जिस ‘आत्मा’ का उल्लेख है, वह कविता की स्वतंत्रता है — नदी की तरलता, सागर की गहराई, मां-पिता की ममता और निष्कलुषता। यह कविता हमें बताती है कि सच्ची कविता वह है जो मुक्त हो, जो किसी स्वार्थ या सत्ता के दबाव में न झुके।
डॉ. चंद्रदत्त शर्मा की "कविता की आत्मा" आज के साहित्यिक संसार के लिए एक आइना है — जहां कविता न केवल मनोरंजन या वाहवाही का साधन हो, बल्कि विचारों, आत्मा और संवेदना की सशक्त अभिव्यक्ति बने।