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Friday, June 20, 2025

24JT News Desk / New Delhi /May 3, 2025

तेलंगाना में हाल ही में संपन्न जाति सर्वेक्षण ने सामाजिक न्याय और नीति निर्माण की दिशा में एक नया अध्याय खोला है, लेकिन इसके साथ ही कई विवाद और चुनौतियाँ भी सामने आई हैं। यह सर्वेक्षण, जो कांग्रेस शासित तेलंगाना में पहला व्यापक जाति सर्वे था, न केवल राज्य के लिए बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भी एक मिसाल बन सकता है। हालाँकि, इसके निष्कर्षों और प्रक्रिया पर विपक्षी दलों की आलोचनाओं ने कई सवाल खड़े किए हैं। केंद्र सरकार के हालिया निर्णय, जिसमें आगामी राष्ट्रीय जनगणना में जाति आधारित आंकड़े शामिल करने की घोषणा की गई है, के आलोक में तेलंगाना सर्वेक्षण के सबक और चुनौतियाँ और भी प्रासंगिक हो गए हैं।

राजनीति / तेलंगाना जाति सर्वे: सामाजिक न्याय की राह में सबक और चुनौतियाँ

सर्वेक्षण का अवलोकन:

तेलंगाना सरकार ने 4 फरवरी 2024 को जाति सर्वेक्षण कराने का निर्णय लिया था, जिसे 16 फरवरी 2024 को विधानसभा की मंजूरी मिली। इसके लिए योजना विभाग को नोडल एजेंसी बनाया गया और उत्तम कुमार रेड्डी की अध्यक्षता में एक कैबिनेट उप-समिति गठित की गई। 6 नवंबर 2024 से शुरू हुए इस सर्वेक्षण में 94,261 गणनाकारों ने 50 दिनों तक घर-घर जाकर 3.54 करोड़ लोगों के सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक, रोजगार, और राजनीतिक स्थिति के आंकड़े एकत्र किए। सर्वेक्षण में 57 सवालों वाला एक प्रश्नावली फॉर्म इस्तेमाल किया गया, जिसमें "कोई जाति नहीं" और "कोई धर्म नहीं" जैसे विकल्प भी शामिल थे, ताकि सभी की सहभागिता सुनिश्चित हो।
4 फरवरी 2025 को मुख्यमंत्री ए. रेवंत रेड्डी ने विधानसभा में सर्वेक्षण के प्रमुख निष्कर्ष पेश किए। इसके अनुसार:
पिछड़ा वर्ग (बीसी) की आबादी 56.33% है, जिसमें गैर-मुस्लिम बीसी 46.25% और मुस्लिम बीसी 10.08% हैं।

अनुसूचित जाति (एससी) 17.43% और अनुसूचित जनजाति (एसटी) 10.45% हैं।

अन्य जातियाँ (ओसी) 15.79% हैं, जिसमें मुस्लिम ओसी 2.48% शामिल हैं।

मुख्यमंत्री ने इसे "इतिहास में लाल अक्षर वाला दिन" करार देते हुए कहा कि यह सर्वेक्षण राहुल गांधी के "जितनी आबादी, उतना हक" के सिद्धांत से प्रेरित है और सामाजिक न्याय की दिशा में एक बड़ा कदम है। सरकार ने स्थानीय निकाय चुनावों में बीसी को 42% आरक्षण देने की घोषणा भी की।

आलोचनाओं का दौर:

सर्वेक्षण के निष्कर्षों ने विपक्षी दलों भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) और भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) को हमलावर बनने का मौका दिया। सबसे बड़ा विवाद गैर-मुस्लिम पिछड़ा वर्ग की आबादी को लेकर है। 2014 में बीआरएस सरकार द्वारा किए गए समग्र कुटुंब सर्वेक्षण में गैर-मुस्लिम बीसी की आबादी 52% बताई गई थी, जो अब 46.25% दिखाई गई है। बीआरएस के कार्यकारी अध्यक्ष केटी रामाराव ने इसे जानबूझकर कम दिखाने का आरोप लगाया और राहुल गांधी को पत्र लिखकर इसकी शिकायत की। बीजेपी विधायक पायल शंकर ने कहा, "क्या हमने शादी करना और बच्चे पैदा करना बंद कर दिया कि बीसी की आबादी इतनी कम हो गई?" उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि कांग्रेस गैर-मुस्लिम बीसी का हक छीनकर मुस्लिम बीसी को देना चाहती है।
दूसरी ओर, बीसी समुदाय के नेताओं ने भी सर्वेक्षण पर सवाल उठाए। राष्ट्रीय बीसी एसोसिएशन के अध्यक्ष आर. कृष्णैया ने दावा किया कि बीसी की आबादी 52% होनी चाहिए थी, और ओसी की आबादी को बढ़ाकर दिखाया गया है। कुछ नेताओं ने यह भी शिकायत की कि ग्रेटर हैदराबाद म्युनिसिपल कॉरपोरेशन क्षेत्र में कई घरों को सर्वे में शामिल ही नहीं किया गया।

पारदर्शिता पर सवाल:

सर्वेक्षण की पारदर्शिता एक और बड़ा मुद्दा बनकर उभरा है। सरकार ने केवल निष्कर्षों का सारांश पेश किया, जबकि व्यक्तिगत स्तर के आंकड़े गोपनीयता का हवाला देकर सार्वजनिक नहीं किए गए। मुख्यमंत्री रेड्डी ने कहा कि सर्वेक्षण का चौथा खंड, जिसमें व्यक्तिगत जानकारी है, डेटा गोपनीयता के कारण जारी नहीं किया जा सकता। विपक्ष ने इसे गैर-पारदर्शी करार देते हुए संपूर्ण आंकड़े जारी करने की मांग की है। यह स्थिति बिहार और कर्नाटक के जाति सर्वेक्षणों से मिलती-जुलती है, जहाँ भी आंकड़े पूरी तरह सार्वजनिक नहीं किए गए।
सर्वेक्षण की चुनौतियाँ
सर्वेक्षण के दौरान कई व्यावहारिक चुनौतियाँ सामने आईं। 1.03 लाख घर बंद मिले, 1.68 लाख परिवारों ने शुरू में सहयोग करने से इनकार किया, और 84,000 से अधिक घर गलत वर्गीकृत किए गए क्योंकि वे गैर-आवासीय थे या वहाँ रहने वाले तेलंगाना के निवासी नहीं थे। इसके बावजूद, 96.9% परिवारों को कवर किया गया। बाकी 3.1% परिवारों को 16 से 28 फरवरी 2025 के बीच कवर करने की योजना बनाई गई, लेकिन इस दूसरे चरण में लोगों की भागीदारी कम रही।


तेलंगाना का यह सर्वेक्षण कई मायनों में एक मिसाल है। सबसे पहले, इसने 50 दिनों में 3.54 करोड़ लोगों को कवर करके एक रिकॉर्ड बनाया, जो बिहार (छह महीने) और कर्नाटक की तुलना में तेज और कम खर्चीला रहा। दूसरा, सर्वेक्षण में "कोई जाति नहीं" और "कोई धर्म नहीं" जैसे विकल्प शामिल करना समावेशिता की दिशा में एक सकारात्मक कदम था, जैसा कि तेलंगाना हाई कोर्ट ने भी निर्देश दिया था।
हालाँकि, पारदर्शिता की कमी और आंकड़ों की विश्वसनीयता पर सवाल इस सर्वेक्षण की सबसे बड़ी कमजोरी बन गए। सरकार ने भले ही डेटा-संचालित नीति निर्माण का वादा किया हो, लेकिन आंकड़े सार्वजनिक न करना विश्वास की कमी को दर्शाता है। साथ ही, बीसी समुदाय के भीतर विभिन्न उप-समूहों के हितों का टकराव (जैसे मुस्लिम बीसी बनाम गैर-मुस्लिम बीसी) नीति लागू करने में एक बड़ी चुनौती बन सकता है।

तेलंगाना का यह सर्वेक्षण केंद्र सरकार के हालिया निर्णय के बाद और भी प्रासंगिक हो गया है, जिसमें 2025 की राष्ट्रीय जनगणना में जाति आधारित आंकड़े शामिल करने की घोषणा की गई। भारत में 1931 के बाद से व्यापक जाति जनगणना नहीं हुई है, और केवल एससी/एसटी के आंकड़े ही एकत्र किए गए हैं। तेलंगाना का अनुभव दिखाता है कि स्थानीय समुदायों को शामिल करना, सवालों को सावधानी से डिज़ाइन करना, और डेटा की गोपनीयता सुनिश्चित करना ऐसी प्रक्रियाओं के लिए ज़रूरी है।

हालाँकि, बिहार का उदाहरण भी एक सबक है, जहाँ 2023 में सर्वेक्षण के बाद आरक्षण 50% से बढ़ाकर 65% करने का प्रयास किया गया, लेकिन पटना हाई कोर्ट ने इसे सुप्रीम कोर्ट की 50% सीमा का उल्लंघन बताकर खारिज कर दिया। तेलंगाना में भी 42% बीसी आरक्षण लागू करने की योजना इस कानूनी बाधा का सामना कर सकती है, जब तक कि केंद्र सरकार इस सीमा को संवैधानिक संशोधन के माध्यम से न हटाए।

तेलंगाना का जाति सर्वेक्षण सामाजिक न्याय की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है, लेकिन इसकी सफलता पारदर्शिता, समुदायों के बीच विश्वास, और कानूनी बाधाओं को दूर करने पर निर्भर करेगी। यह सर्वेक्षण यह भी दर्शाता है कि जाति आधारित आंकड़े नीति निर्माण में मददगार हो सकते हैं, लेकिन अगर प्रक्रिया पर सवाल उठते हैं, तो यह सामाजिक तनाव को भी बढ़ा सकता है। केंद्र सरकार को तेलंगाना के अनुभव से सीखते हुए यह सुनिश्चित करना होगा कि राष्ट्रीय जनगणना में न केवल आंकड़े एकत्र हों, बल्कि उनका उपयोग वास्तविक सामाजिक बदलाव के लिए हो।

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