"मोम के पंख" एक दार्शनिक रचना है, जो पौराणिक कथा में इकारस के मोम के पंखों से प्रेरित प्रतीत होती है। कविता में मानव की ऊँची उड़ान भरने की चाह और उससे जुड़े जोखिमों को बखूबी चित्रित किया गया है। सरल भाषा में लिखी गई यह कविता आम पाठकों से लेकर साहित्य के गंभीर अध्येताओं तक को आकर्षित कर रही है। साहित्य समीक्षकों का मानना है कि यह कविता आधुनिक युग में मानव की आकांक्षाओं और उनकी सीमाओं को उजागर करने में सफल रही है।
कविता : मोम के पंख
मोम के कोमल पंख लगाकर मैं,
क्यों सूरज को छूना चाहता हूँ?
बारूद के ढेर पर बैठकर मैं,
क्यों आग से खेलना चाहता हूँ?
जानता हूँ, मेरा जीवन,
काँटों से भरा हुआ है।
काँटों भरी राहों पर चलकर मैं,
क्यों फूलों की इच्छा रखता हूँ?
मोम के कोमल पंख लगाकर मैं,
क्यों सूरज को छूना चाहता हूँ?
हर पल, हर क्षण अनजान है,
कब आए आँधी, कब तूफान।
इस किनारे पर बैठकर मैं,
उस किनारे को पाना चाहता हूँ।
मोम के कोमल पंख लगाकर मैं,
क्यों सूरज को छूना चाहता हूँ?
मंजिल का पता नहीं मुझको,
रास्ता कौन-सा है, अनजान।
फिर क्यों रोकता हूँ हवाओं को,
मंजिल का ठिकाना जानना चाहता हूँ।
मोम के कोमल पंख लगाकर मैं,
क्यों सूरज को छूना चाहता हूँ?
पेट कभी तृप्त नहीं होता,
घास पर ओस की चंद बूँदों से।
फिर क्यों उन बूँदों को पीकर मैं,
तृप्ति का आभास करना चाहता हूँ?
मोम के कोमल पंख लगाकर मैं,
क्यों सूरज को छूना चाहता हूँ?
कविता का महत्व:
कविता की पंक्तियाँ, जैसे
"मोम के कोमल पंख लगाकर मैं, क्यों सूरज को छूना चाहता हूँ?" और "काँटों भरी राहों पर चलकर मैं, क्यों फूलों की इच्छा रखता हूँ?", जीवन के विरोधाभासों और मानव की अतृप्त इच्छाओं पर गहरे सवाल उठाती हैं। कविता में अनिश्चितता, जोखिम और तृप्ति की खोज जैसे विषयों को सहजता से प्रस्तुत किया गया है।
डॉ. दिनकर ने अपने साहित्यिक सफर में कई रचनाएँ दी हैं, जो सामाजिक और मानवीय मुद्दों को उजागर करती हैं। उनकी यह नई कविता भी पाठकों को आत्ममंथन के लिए प्रेरित कर रही है। कई युवा पाठकों ने इसे "प्रेरणादायक और विचारोत्तेजक" बताया।