यह अध्ययन भारत, अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस के 8,800 लोगों पर किया गया। हिंदुस्तान टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार, पिछले महीने प्रकाशित इस अध्ययन में लोगों की असली और फर्जी खबरों को अलग करने की क्षमता पर ध्यान केंद्रित किया गया।
प्रतिभागियों को असली और फर्जी हेडलाइंस दिखाई गईं, जो विश्वसनीय समाचार स्रोतों और फैक्ट-चेक साइटों से ली गई थीं। ये हेडलाइंस सामान्य सोशल मीडिया पोस्ट की तरह थीं, जिनमें स्रोत, लाइक या टिप्पणियां शामिल नहीं थीं, ताकि प्रतिभागी केवल हेडलाइन के आधार पर सत्यता का आकलन करें।
रिपोर्ट के अनुसार, भारतीयों में फर्जी खबरों और गलत सूचनाओं के प्रति संवेदनशीलता अधिक है। अध्ययन में पाया गया कि भारतीय खास तौर पर सकारात्मक भावनाएं जगाने वाली सुर्खियों पर जल्दी विश्वास कर लेते हैं, जबकि नकारात्मक खबरों के प्रति संदेह कम दिखाते हैं। इससे वे भावनात्मक रूप से आवेशित गलत सूचनाओं के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाते हैं।
हालांकि, अध्ययन में यह भी सामने आया कि भारतीय असली खबरों को सटीकता के साथ पहचान लेते हैं, जो अन्य देशों के समान है। इससे पता चलता है कि गलत सूचनाओं की चुनौतियों के बावजूद, भारतीयों में सच्चाई को पहचानने की आधारभूत क्षमता मजबूत है।
इप्सोस इंडिया के प्रबंध निदेशक (अनुसंधान) विवेक गुप्ता ने बताया कि सकारात्मक खबरों पर आमतौर पर कम सवाल उठाए जाते हैं। उदाहरण के लिए, ‘प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में भारत शीर्ष पर’ जैसी झूठी लेकिन सकारात्मक हेडलाइन पर आसानी से विश्वास किया जा सकता है और इसे व्यापक रूप से साझा किया जा सकता है। वहीं, ‘सभी स्थानीय स्ट्रीट वेंडरों पर प्रतिबंध’ जैसी नकारात्मक झूठी खबरें भी बिना आलोचनात्मक मूल्यांकन के स्वीकार की जा सकती हैं।
रिपोर्ट में डिजिटल परिदृश्य के विकास को गलत सूचनाओं के प्रसार का कारण बताया गया है। एल्गोरिदम, जो वायरल सामग्री को बढ़ावा देते हैं, अनजाने में सनसनीखेज या विभाजनकारी सामग्री को प्राथमिकता दे सकते हैं।
गुप्ता ने कहा कि नकारात्मक खबरों पर ब्रिटेन सबसे अधिक सवाल उठाता है, जबकि अमेरिका ऐसी खबरों पर बिना ज्यादा जांच के विश्वास कर लेता है। यह अध्ययन गलत सूचनाओं से निपटने के लिए मीडिया साक्षरता और आलोचनात्मक सोच को बढ़ावा देने की आवश्यकता पर जोर देता है।