जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की पीठ ने यह आदेश एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) और स्वराज पार्टी के कार्यकर्ता योगेंद्र यादव की याचिका पर सुनवाई के दौरान दिया। याचिका में बिहार में चुनाव आयोग द्वारा किए जा रहे विशेष गहन पुनरीक्षण को असंवैधानिक और मनमाना बताया गया था।
1 अगस्त को चुनाव आयोग ने एक मसौदा मतदाता सूची जारी की थी, जिसमें 65 लाख मतदाताओं के नाम हटाए गए थे। हालांकि, इन मतदाताओं के नाम और हटाने के कारण सार्वजनिक नहीं किए गए थे। याचिकाकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट में मांग की थी कि यह सूची सार्वजनिक की जाए। 14 अगस्त को कोर्ट ने चुनाव आयोग को निर्देश दिया था कि वह सूची को अपनी वेबसाइट पर उपलब्ध कराए और हटाए गए मतदाताओं के नाम व कारणों की जानकारी दे। साथ ही, कोर्ट ने आयोग से कहा था कि वह दावे और आपत्तियों के लिए आधार कार्ड को स्वीकार करे।
वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने कोर्ट में कहा कि सुप्रीम कोर्ट के पहले के आदेश के बावजूद आधार कार्ड को पहचान के दस्तावेज के रूप में स्वीकार नहीं किया जा रहा, जो कोर्ट की अवमानना है। बिहार में आधार कार्ड कवरेज 94% है, फिर भी इसे मतदाता सूची पुनरीक्षण के लिए 11 मान्य दस्तावेजों की सूची से बाहर रखा गया था। इससे मतदाताओं को परेशानी हो रही थी, क्योंकि उन्हें डर था कि उनके नाम बड़े पैमाने पर सूची से हटाए जा सकते हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में साफ किया कि आधार कार्ड नागरिकता का नहीं, बल्कि पहचान का प्रमाण है। कोर्ट ने चुनाव आयोग को निर्देश दिया कि वह अपने अधिकारियों को आधार कार्ड स्वीकार करने और उसकी प्रामाणिकता की जांच करने का आदेश जारी करे। इसके अलावा, एडीआर की मांग पर चुनाव आयोग ने कोर्ट में कहा कि वह मतदाताओं के दावे और आपत्तियां दर्ज करने की समय सीमा बढ़ाने को तैयार है।
भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण के अनुसार, आधार कार्ड भारत के निवासियों के लिए पहचान और पते का प्रमाण है। बिहार में आधार कार्ड को स्वीकार न करने के चुनाव आयोग के रवैये से मतदाताओं में भ्रम और परेशानी बढ़ रही थी। सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश से अब मतदाताओं को राहत मिलने की उम्मीद है।