पार्किंसंस रोग — जो दुनिया भर में सबसे तेजी से फैल रहे तंत्रिका संबंधी विकारों में शामिल है — का आमतौर पर तब पता चलता है जब मस्तिष्क की क्षति पहले ही हो चुकी होती है। लेकिन अब, मोहाली स्थित नैनो विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संस्थान (INST) के वैज्ञानिकों ने एक ऐसा बायोसेंसर तैयार किया है, जो बीमारी के शुरुआती चरण में ही संकेत दे सकता है।
इस शोध की अगुवाई कर रहीं डॉ. शर्मिष्ठा सिन्हा और उनकी टीम ने सोने के नैनोक्लस्टर्स यानी कुछ नैनोमीटर चौड़े चमकते कणों का इस्तेमाल करते हुए यह तकनीक विकसित की है। इन कणों को विशेष अमीनो अम्लों की परत से लैस किया गया है — जो उन्हें रोग से जुड़े खतरनाक प्रोटीन से चिपकने की क्षमता प्रदान करते हैं।
टीम ने ध्यान केंद्रित किया α-सिन्यूक्लिन नामक एक खास प्रोटीन पर, जो पार्किंसंस से सीधे तौर पर जुड़ा हुआ है। यह प्रोटीन शुरुआत में सामान्य होता है, लेकिन समय के साथ खतरनाक रूप ले लेता है और मस्तिष्क कोशिकाओं को नुकसान पहुंचाता है। वैज्ञानिकों ने ऐसे सेंसर विकसित किए हैं जो इस प्रोटीन के हानिरहित और विषाक्त रूपों के बीच अंतर कर सकते हैं — और वह भी सिर्फ उनके आवेश यानी चार्ज के आधार पर
कैसे काम करता है यह बायोसेंसर?
INST के इस बायोसेंसर में दो प्रकार के सोने के नैनोक्लस्टर्स तैयार किए गए — प्रोलाइन-लेपित और हिस्टिडीन-लेपित। प्रोलाइन-लेपित क्लस्टर प्रोटीन के सामान्य रूप से जुड़ते हैं, जबकि हिस्टिडीन-लेपित क्लस्टर विषैले रूपों से चिपक जाते हैं। इस "स्मार्ट" चिपचिपेपन के जरिए यह तकनीक तय कर सकती है कि मस्तिष्क में क्या कुछ गड़बड़ चल रही है।
इस पूरी प्रक्रिया को सिद्ध करने के लिए अत्याधुनिक प्रयोग किए गए। वैज्ञानिकों ने यूवी-विज़ स्पेक्ट्रोस्कोपी, इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोपी, एक्स-रे फोटोइलेक्ट्रॉन स्पेक्ट्रोस्कोपी, और जैविक कोशिकाओं (SH-SY5Y) पर परीक्षण कर यह साबित किया कि यह तकनीक प्रयोगशाला से आगे बढ़कर असल ज़िंदगी में भी असरदार हो सकती है।
कौन-कौन रहे इस खोज में शामिल?
इस उपलब्धि को संभव बनाया INST की डॉ. शर्मिष्ठा सिन्हा, उनकी पीएचडी छात्राएं सुश्री हरप्रीत कौर और सुश्री इशानी शर्मा ने। इस टीम को सहयोग मिला CSIR-IMTECH, चंडीगढ़ के डॉ. दीपक शर्मा और अर्पित त्यागी से, जिन्होंने प्रोटीन जैव-रसायन और सेल बेस्ड परीक्षणों में विशेषज्ञता दी।
क्यों है ये तकनीक खास?
इस नैनो बायोसेंसर की सबसे बड़ी खासियत है — प्रारंभिक पहचान। इसका मतलब है कि रोगी में कोई लक्षण आने से पहले ही यह तकनीक बता सकती है कि पार्किंसंस विकसित हो रहा है या नहीं। इससे न सिर्फ इलाज जल्दी शुरू हो सकेगा, बल्कि जीवन की गुणवत्ता भी बेहतर होगी और इलाज का खर्च भी कम होगा।
टीम का मानना है कि आने वाले समय में यह तकनीक अल्ज़ाइमर जैसी अन्य बीमारियों की पहचान में भी मदद कर सकती है। कम लागत, बिना किसी लेबलिंग की आवश्यकता और सरल जांच प्रक्रिया इस सिस्टम को पॉइंट-ऑफ-केयर यानी किसी भी सामान्य क्लिनिक में उपयोग के लायक बनाती है।
यह शोध हाल ही में प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय जर्नल ‘Nanoscale’ (Royal Society of Chemistry) में प्रकाशित हुआ है।