कहानी: पृथ्वी भ्रमण
“नारायण-नारायण, महाराज विष्णु की जय हो! हे तीनों लोकों के स्वामी भगवान विष्णु, आपकी जय हो!”
“क्या बात है, नारद मुनि? आपने बहुत दिनों बाद आज विष्णु लोक में पधारकर हमें कृतार्थ किया है, और ऐसा प्रतीत होता है कि आप बहुत जल्दी में हैं।”
“क्या बताऊँ, प्रभु! आप तो सर्वज्ञ हैं, फिर भी यदि आप पूछ ही रहे हैं, तो मैं आपको बताता हूँ। कई युग बीत गए हैं, प्रभु, जब मैं पृथ्वी लोक गया था। सोच रहा हूँ कि क्यों न धरती पर जाऊँ और आप द्वारा निर्मित इस धरा के जीव-जंतुओं से मिलकर आऊँ।”
“नहीं, नारद, ऐसा मत करना। तुम चाहो तो कहीं और भ्रमण के लिए जा सकते हो, परंतु पृथ्वी पर मत जाना, क्योंकि वहाँ तो मैं स्वयं भी जाने से कतराता हूँ।”
“ऐसा क्या है, प्रभु, वहाँ पर?”
“देखो, नारद, आज का इंसान मुझे केवल धन कमाने का साधन समझता है। बाकी तो उसने अपने आराम की सारी सुख-सुविधाएँ स्वयं जुटा ली हैं।”
“मैं कुछ समझा नहीं, महाराज।”
“जैसे कि यहाँ से वहाँ जाने के लिए वाहन, पानी पर सफर करने के लिए जलयान, वायु में सफर करने के लिए तीव्रगामी वायुयान आदि। जो वाहन कठिन तप के बाद भी ब्रह्मा देने में हिचकिचाते थे, उसे आज का मानव चंद कागज के टुकड़ों—जिन्हें वह रुपये, डॉलर या पाउंड कहता है—देकर खरीद लेता है।”
“फिर तो, प्रभु, वहाँ जाना और भी रोचक होगा। मैं पृथ्वी पर अवश्य जाऊँगा।”
“यदि तुम नहीं मानते, नारद, तो जाओ, परंतु वहाँ सावधानी बरतना।”
“जो आज्ञा, प्रभु!” यह कहकर नारद मुनि पृथ्वी लोक की ओर प्रस्थान कर गए।
कुछ दिन पृथ्वी पर रहने के बाद वे विष्णु लोक लौटे। उनकी हालत देखकर सभी स्तब्ध रह गए। नारद की लटें खुली और उलझी हुई थीं, चेहरा सहमा और भयभीत लग रहा था, हाथ-पैरों पर मारपीट और खरोंच के निशान थे, तन पर कपड़े जीर्ण-शीर्ण हो चुके थे। चेहरे का तेज फीका पड़ चुका था। उनकी सदा की साथी वीणा भी कहीं खो गई थी। पृथ्वी लोक से वे अकेले ही लौटे थे।
विष्णु लोक के द्वार पर खड़े द्वारपालों ने उनका यह हुलिया देखकर उन्हें रोक लिया। फिर सोचा कि शायद यह कोई पृथ्वीवासी है, जो अपने पुण्य प्रभाव के कारण सह-शरीर यहाँ तक पहुँचा है। यदि इसे रोका गया, तो भगवान विष्णु नाराज हो सकते हैं। अतः उन्होंने नारद को आदरपूर्वक अंदर जाने दिया।
नारद जैसे ही भगवान विष्णु के समक्ष पहुँचे, प्रभु बोले, “हे पुण्यात्मा, आप कौन हैं? और इस प्रकार बिना बुलाए यहाँ कैसे चले आए? जहाँ तक मुझे ज्ञात है, मैंने आपको यहाँ नहीं बुलाया। कृपया शीघ्र लौट जाएँ, अन्यथा मुझे द्वारपालों से कहकर आपको जबरन वापस भिजवाना पड़ेगा।”
“नारायण-नारायण, हे प्रभु! आपसे मुझे ऐसी आशा नहीं थी कि आप अपने सेवक को ही भूल जाएँगे। मैं आपका सेवक नारद हूँ,” नारद ने रोते हुए कहा।
“तो आप नारद मुनि हैं! यह क्या हुलिया बना रखा है? आप तो पृथ्वी भ्रमण के लिए गए थे। इतनी जल्दी कैसे लौट आए?”
“हे प्रभु, यह आपकी कैसी लीला है? मैं कुछ समझ ही नहीं पाया।”
“तुम क्या कहना चाहते हो, नारद मुनि? अच्छा, छोड़ो। अब यह बताओ कि तुम्हारा पृथ्वी भ्रमण कैसा रहा और वहाँ तुमने क्या-क्या देखा?”
“क्षमा करें, प्रभु, मुझे रोना आ रहा है। मैंने सोचा कि आपकी जन्मभूमि आर्यव्रत पर जाऊँ। यही सोचकर मैं भारत भ्रमण के लिए गया। वहाँ की दशा देखकर मेरी आँखों से अश्रु नहीं रुक रहे, प्रभु। आज पृथ्वी पर हर जगह आपके नाम की लूट मची हुई है।”
“यह तो अच्छी बात है, नारद, कि पृथ्वीवासी मेरे नाम में लीन हैं।”
“हे प्रभु, आप सर्वज्ञ हैं। आपने यह भी देखा होगा कि मेरी यह हालत कैसे हुई।”
“जानता तो हूँ, नारद, फिर भी मैं तुम्हारे मुख से सुनना चाहता हूँ।”
“तो सुनिए, प्रभु। मैं यहाँ से चला तो सोचा कि जहाँ आपने बार-बार अवतार लिया, वहाँ चलूँ। मैं प्रातःकाल वहाँ पहुँचा। मंदिरों में आपके नाम के कीर्तन-भजन सुने, मन बड़ा प्रसन्न हुआ। मैंने सोचा, चलो, मंदिर में बैठकर थोड़ी देर भगवत भजन करता हूँ। मैं अंदर गया। सभी लोग भजनों में बैठे तो थे, पर आपस में बतिया रहे थे और एक-दूसरे की चुगली में लीन थे। पुरुष मारने-ठगने की बातें कर रहे थे। कीर्तन समाप्त होने पर पुजारी ने कहा, ‘भक्तों, अब दानपेटी में दान डालते जाइए। यहाँ की फीस तो आपको पता ही है—पाँच सौ इक्यावन रुपये।’ सभी दान डालते गए। सबके जाने के बाद मेरा नंबर आया। पुजारी ने कहा, ‘अरे, तुमसे अलग से कहना होगा क्या? तुम दान क्यों नहीं डालते?’
मैंने कहा, ‘हे मानव, मेरे पास ये कागज के टुकड़े कहाँ हैं?’
‘जब तुम्हारे पास पैसे ही नहीं थे, तो यहाँ क्या करने आए?’
मैंने कहा, ‘मेरे पास पैसे नहीं हैं, और फिर भजन-कीर्तन तो सभी के लिए होता है। इसमें लेन-देन कहाँ होता है?’
यह सुनकर पुजारी आग-बबूला हो गया और मुझे खरी-खोटी सुनाने लगा। मैं वहाँ से चुपके से निकल गया। वह पुजारी मुझे पुकारता रहा, पर मैं पीछे मुड़कर देखने वाला कहाँ था?
वहाँ से निकलकर मैं एक गौशाला गया। वहाँ कामधेनु की पुत्रियों की दशा देखी। उनकी हालत देखकर, प्रभु, मुझे रोना आता है। सभी इच्छाओं की पूर्ति करने वाली गौमाता को आज भोजन भी नसीब नहीं हो रहा। उन्हें गौशालाओं में बंदी बनाकर रखा जाता है। कुछ लोग गलत तरीके से कमाया धन गौसेवा में लगाते हैं, अर्थात् गायों के लिए चारा-दाना आदि का प्रबंध करते हैं। परंतु गौशाला प्रबंधक उस चारे-दाने को बेचकर ऐशो-आराम की जिंदगी जीते हैं।
इसके बाद, प्रभु, मैंने सोचा कि चलो, न्यायालय में जाकर देखता हूँ। वहाँ रामराज्य की तरह न्याय होता होगा। मैं न्यायालय गया। वहाँ आपके गीता में निहित साक्षात वचनों पर हाथ रखकर कसम खिलाई जाती है, फिर भी अपराधी साफ बच जाता है और निर्दोष को सजा मिलती है। थोड़े से धन के लिए मानव गीता जैसी पवित्र पुस्तक को झुठलाता है। वह गलत को सही साबित कर देता है, प्रभु।
फिर मैंने अस्पतालों की हालत देखी। वहाँ औरतें जानबूझकर अपने गर्भ को गिरा रही हैं, होने वाली कन्या को गर्भ में ही मरवा रही हैं। आज मानव ने इतनी तरक्की कर ली कि वह गर्भ में पल रहे शिशु का लिंग जानकर कन्या का गर्भपात करा देता है।”
“नारद, मैंने इंसान को सभी जीवों से सुंदर और अच्छे-बुरे का ज्ञान समझने योग्य बनाकर धरती पर भेजा था, परंतु वह आदिकाल से ही मुझे चुनौती देता आ रहा है। चलो, और बताओ, आगे क्या हुआ?”
“इसके बाद, प्रभु, मैंने देखा कि धरती पर बुजुर्गों की इज्जत घट चुकी है। उनकी संतानें भी उनका सम्मान नहीं करतीं। अपनी ही औलाद उन्हें घर से निकाल देती है। आज अनाथालयों, गौशालाओं, और वृद्धाश्रमों की संख्या बढ़ती जा रही है। इनमें बच्चों, गायों, और वृद्धों के साथ बुरा व्यवहार किया जाता है। कुछ पापी लोग अपने अधर्म से कमाए धन से इनकी सेवा के लिए दान देते हैं, पर वह धन भी आश्रमों के कर्मचारी हड़प लेते हैं। अनाथालयों में बच्चों से गलत तरीके से कमाई करवाई जाती है। अनाथ कन्याओं से गलत काम करवाकर धन कमाया जाता है।
प्रभु, आज धरती पर हर तरह के पाप बढ़ गए हैं। कहीं भाई-बहन शादी कर रहे हैं, कहीं बाप-बेटी के शारीरिक संबंध बन रहे हैं, कहीं सास-जमाई आपस में संबंध बना रहे हैं, तो कहीं लोग पैसे के लिए अपनी अंतरात्मा तक बेच रहे हैं। हे प्रभु, यह आपकी कैसी लीला है? मुझे लगता है कि अब आपको इस धरती पर अवतार ले लेना चाहिए।”
“इस बारे में हम बाद में बात करेंगे। पहले यह बताओ कि तुम्हारी यह हालत कैसे हुई? तुम्हारी ऐसी दशा किसने की?”
“इसके बारे में न पूछें तो बेहतर, प्रभु। आप तो सर्वज्ञ हैं। ऐसी कौन-सी बात है जो आपसे छिपी है? आपने तो यहाँ से सब कुछ देख लिया होगा।”
“फिर भी, नारद मुनि, मैं तुम्हारे मुख से सुनना चाहता हूँ।”
“सब कुछ देखने के बाद मैंने सोचा कि क्यों न वन में घूमकर देखा जाए। एक गाँव से निकलकर मैं एक आश्रम की ओर बढ़ा। वहाँ देखा कि युवा अंधाधुंध नशे में डूबे थे। कुछ सुल्फा, चरस, गांजा पी रहे थे, तो कुछ अन्य नशों में लिप्त थे। उनमें से एक ने मुझे देख लिया और मुझसे मेरा नाम पूछा। मैंने बताया कि मैं नारद हूँ। यह सुनकर वहाँ बैठे सभी युवक और आश्रम के योगी-महाराज खिलखिलाकर हँसने लगे और उल्टी-सीधी बातें कहकर मेरा मजाक उड़ाने लगे। मैं क्रोधित हो गया और उन्हें श्राप देने की चेतावनी दी। इस पर वे और हँसने लगे और बोले, ‘कौन-सी शराब है, महाराज? देशी या अंग्रेजी? देशी तो अच्छी नहीं लगती, अंग्रेजी ही पिलाओ।’
मैं और क्रोधित हुआ, तो उन्होंने मेरी पिटाई कर दी। मेरे कपड़े फाड़ दिए। वहाँ सिपाही आए और मुझे शांति भंग करने के नाम पर कैद कर लिया। मुझे खूब पीटा गया। दो दिन तक कारावास में रखा गया। सुबह-शाम डंडों से मेरी ‘सेवा’ की जाती थी। मैंने हवलदार को समझाने की कोशिश की कि मैं भगवान विष्णु का सेवक नारद हूँ, पर उसने मुझे बे-रुपया समझकर और पीटा। भला हो उस थानेदार का, जिसने दो दिन बाद मुझे रिहा करने का आदेश दिया, पर उसने भी रिश्वत माँगी। मेरे पास कुछ न होने पर उसने मेरी वीणा रख ली। निकलते समय दो-चार सिपाही आए और मेरी हालत देखकर जोर-जोर से हँसने लगे। उनमें से एक ने मुझे और दो-चार थप्पड़ जड़ दिए।
प्रभु, यह कैसा मानव हो गया है, जिसका आप और समस्त देवताओं पर से विश्वास ही उठ गया है?”
“मानता हूँ, नारद। आज मानव ने अपने ऐशो-आराम के लिए सभी साधन जुटा लिए हैं—गर्मी से बचने के लिए ठंडक पैदा करने वाले यंत्र, ठंड से बचने के लिए गर्मी पैदा करने वाले यंत्र, बरसात और सूखे से बचने के यंत्र। इन्हीं साधनों के बल पर आज मानव प्रकृति देवी और भगवान के अस्तित्व को नकार रहा है। परंतु कुछ ऐसे प्राणी भी हैं जो सच्चे भक्त हैं, भगवान और प्रकृति को मानते हैं, और दीन-दुखियों की सहायता करते हैं। उन्हीं के कारण आज तक धरती बची हुई है, अन्यथा कब की प्रलय आ गई होती।
जहाँ-जहाँ पाप बढ़ गए हैं, वहाँ मैं प्रकृति प्रकोप जैसे बाढ़, ओलावृष्टि, सूखा आदि भेजकर मानव को अपनी शक्ति का आभास कराता हूँ। भूकंप भेजकर यह बताता हूँ कि मैं एक क्षण में धरती की इमारतों को मिट्टी में मिला सकता हूँ। परंतु आज का मानव उसका भी वैज्ञानिक कारण ढूँढ लेता है। वह यह नहीं समझता कि यह सब मैं ही करता हूँ।
जो गर्भ में कन्या को मरवाता है, उसे मैं निःसंतान बना देता हूँ। जो गाय को मारता या बेचता है, उसकी संतान या बहू-बेटे उसे बुढ़ापे में घर से निकाल देते हैं। जो दूसरों की बहू-बेटियों के साथ गलत करता है, उसकी बहू-बेटियाँ भी वैसा ही करती हैं। मानव स्वयं गलती करता है और सजा मिलने पर मुझे दोष देता है।
मैं इतनी विपदाएँ भेजकर मानव को समझाना चाहता हूँ कि यदि मैं चाहूँ, तो एक क्षण में पूरी पृथ्वी को भस्म कर दूँ। समय रहते यदि मानव नहीं समझा, तो धरती का विनाश निश्चित है, और इसमें अधिक समय भी नहीं लगेगा।”
'पृथ्वी भ्रमण' आधुनिक समाज की विसंगतियों को पौराणिक कथानक के साथ जोड़कर प्रस्तुत करने में सफल रही है। यह कहानी मंदिरों में भक्ति के नाम पर व्यापार, गौशालाओं में गायों की दुर्दशा, न्यायालयों में सत्य का मखौल, अस्पतालों में कन्या भ्रूण हत्या और समाज में बुजुर्गों की उपेक्षा जैसे गंभीर मुद्दों को बड़े ही मार्मिक ढंग से चित्रित करती है। नारद मुनि की दयनीय स्थिति और उनकी वीणा का खो जाना मानवता के नैतिक पतन का प्रतीक बनकर उभरता है।
कहानी में भगवान विष्णु और नारद मुनि के बीच संवाद के माध्यम से लेखक ने यह दर्शाया है कि मानव ने अपनी प्रगति के लिए भौतिक सुख-सुविधाएँ तो जुटा ली हैं, परंतु नैतिकता और आध्यात्मिकता को भूल गया है। कहानी का अंत भगवान विष्णु के इस कथन के साथ होता है कि प्रकृति और ईश्वर को नकारने वाला मानव यदि समय रहते नहीं सुधरा, तो पृथ्वी का विनाश निश्चित है। यह चेतावनी आज के समाज के लिए एक गंभीर संदेश है।
साहित्य समीक्षकों का मानना है कि यह कहानी न केवल मनोरंजक है, बल्कि विचारोत्तेजक भी है, जो पाठकों को समाज और स्वयं के व्यवहार पर चिंतन करने के लिए प्रेरित करती है। डॉ. दिनकर की यह रचना हिन्दी साहित्य में एक महत्त्वपूर्ण योगदान है और इसे साहित्य प्रेमियों द्वारा खूब सराहा जा रहा है। यह कहानी जल्द ही प्रमुख साहित्यिक पत्रिकाओं और पुस्तक रूप में उपलब्ध होगी।